Monday 2 November 2009

 

नेकी कर, कुएं में डाल


साधु संतों ने एक मार्के की बात कही है कि "नेकी कर, कुएं में डाल'। यानी कि किसी का कोई उपकार करो तो करके भूल जाओ। किसी की भलाई करके उसे भूल जाने में ही भलाई है क्योंकि उपकार करने के बाद याद रखने का मतलब है कि आपके मन में उसके बदले कुछ प्राप्त करने की भावना जन्म ले सकती है। उपकार के बदले अपेक्षा जागृत हो सकती है और यदि ऐसा हुआ तो आपके द्वारा किए गए अमूल्य उपकार का मूल्य कम हो सकता है, उसका महत्त्व खत्म हो सकता है।
दुनिया में कई तरह के लोग होते हैं। कुछ तो ऐसे होते हैं जो किसी के उपकार की बात स्वप्न में भी नहीं सोचते। उन्हें उत्पात करने से फुर्सत मिले तो उपकार की सोचें। वह अपनी रुचि के, यानी कि खुराफाती कामों में व्यस्त रहते हैं, मस्त रहते हैं। उनकी तो बात ही छोड़ दीजिए। हम केवल उनकी बात करेंगे जो दूसरों का उपकार करते हैं, दूसरों के भले-बुरे की सोचते हैं और उनका भला करने में ही अपना हित समझते हैं। ऐसे व्यक्तियों को भी दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। एक वे जो "नेकी कर कुएं में डाल' वाले सिद्धांत का अक्षरसः पालन करने में समर्थ होते हैं। उन्हें सामने वाले से रत्तीभर भी अपेक्षा नहीं होती। वे कतई नहीं सोचते कि कभी आवश्यकता पड़ने पर सामने वाला भी उनकी मदद करेगा या नहीं, उनके इस उपकार का बदला चुकाएगा या नहीं। अपेक्षा भाव का लेस मात्र भी अपनी आत्मा में जन्म नहीं लेने देने की क्षमता रखने वाले ऐसे लोग आज के युग में विरले ही मिलते हैं, फिर भी जो हैं, वे महान्‌ हैं, प्रणाम करने योग्य हैं।
दूसरे वे लोग होते हैं जो कभी किसी को आवश्यकता पड़ने पर बेझिझक मदद करते हैं, हर संभव सहायता को तत्पर रहते हैं। यह मदद कैसी भी हो सकती है। मदद करने वाले बिना स्वार्थ के मदद करते हैं। उनके मन में कोई अपेक्षा नहीं होती है। मदद के बदले कोई शर्त भी नहीं रखते हैं वे। ना ही मन में कोई ऐसा सौदा करते हैं कि आज जो उपकार कर रहे हैं उसका फल वापस फलां-फलां अवसर पर वे चाहते हैं। जैसे ही उन्हें लगा कि मदद के लिए व्यक्ति आशा भरी नजरों से द्वार पर आ ही गया है तो उसे निराश नहीं लौटाना चाहिए और वे मदद कर देते हैं। कई बार तो आदमी अपने घर-परिवार के लोगों की, अपने साथियों-भागीदारों की, अपने सहकर्मियों की नाराजगी मोल लेकर भी दूसरों की मदद करते हैं, सहयोग करते हैं।
ऐसे लोग अपने द्वारा किए गए उपकार के बदले वापस बदले में किसी उपकार की अपेक्षा तो नहीं करते हैं परन्तु जब कभी परिस्थितियां ऐसी बनती हैं या ऐसा मौका आता है कि वह देखते हैं और लोगों से सुनते हैं कि जिस व्यक्ति की उन्होंने मदद की थी, जिसे बार-बार सहयोग दिया था, अपनी औकात से आगे बढ़कर सहायता की, आर्थिक ही नहीं, हर संभव मदद की, वही व्यक्ति उनके प्रति अलग भाव रखता है, पीठ पीछे से उनकी चुगली करता है तो मदद करने वाले तो निश्चय ही पीड़ा से कराह उठते हैं। क्योंकि ऐसे लोग उपकार के बदले उपकार की अपेक्षा नहीं करते हैं तो उपकार के बदले अपकार (अपमान) की भी अपेक्षा नहीं करते और जब उपकार के बदले अपकार मिलता है तो फिर उनकी पीड़ा को महसूस किया जा सकता है।
जो वास्तव में जरूरतमंद होते हैं, कमजोर होते हैं, उनकी मदद करें तो वे आपको जीवनभर नहीं भूलेंगे, उनकी आत्मा भी आपके लिए दुआएं मांगेगी। मगर जो अपने होते हैं, कोई रिश्तेदार या मित्र अथवा अपनी बिरादरी के लोग, जो आपसे बस थोड़ा-सा कम समर्थ होते हैं, कोई जरूरतमंद नहीं होते, उनको आपने कहीं कोई नौकरी लगवा दी तो भविष्य में वे या तो तरह-तरह की शिकायतें लेकर आएंगे, या उनकी शिकायतें आएंगी। उन्हें अगर कोई काम-धंधा करने में आपने मदद कर दी तो आपको अपयश ही मिलेगा। किसी के रहने का इंतजाम नहीं है और आपने उसे अपने घर में रख लिया तो जब वह कमाने-खाने लगेगा तब आपकी भलमनसाहत गई भाड़ में, वह आप ही को आंखें दिखाएगा। आपने अपने यहां अगर काम दे दिया तो वह एक दिन आप ही के सामने ताल ठोंककर खड़ा होगा, आपका ही प्रतिद्वंद्वी बनेगा। ये असल में वे लोग हैं जो नेकी करने वालों को ही कुएं में डालने को उद्यत रहते हैं।
भलाई के बदले किसी भी तरह की अपेक्षा करना या न करना तो एक बात हुई परन्तु उनको क्या कहा जाए जो भलाई करने वालों को यानी कि नेकी करने वालों को ही कुएं में डालने पर उतारु हों। आज के जमाने में वैसे भी हर कोई, किसी की भी मदद करने से कतराता है। आज सब जानते हैं कि अपना काम निकालकर लोग कन्नी काटने लगते हैं। ऐसे समय में यदि उपकार का बदला लोग अपकार से देने लगे तो भला आवश्यकता पड़ने पर कोई भी व्यक्ति किसी की मदद करने कहां से आगे आएगा, क्यों आएगा? कहां मिलेंगे सहयोग करने वाले लोग?
दरअसल आदमी जब संकट में होता है तब उसकी सोच अलग होती है। कष्ट में आदमी भगवान से लेकर दुश्मन तक सबके सामने घुटने टेकने को तैयार रहता है और मदद पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है परन्तु एक बार कष्ट से पार हुआ कि सोच बदल जाती है। वह भूल जाता है कि किस समय किस चीज की महत्ता होती है। भूल जाता है कि अंधकार में प्रकाश की एक किरण का भी महत्व होता है। प्यास ही न हो तो जल का क्या महत्व? एक प्यासा व्यक्ति तीन-चार गिलास पानी पी लेता है परन्तु इनमें से पहली घूंट का जितना महत्व है उतना बाकी के दो-तीन गिलास का नहीं। प्यासे मरते व्यक्ति के लिए पानी की एक बूंद जीवनदायिनी होती है जबकि तृप्त व्यक्ति के लिए घड़ों पानी भी बेकार है।
परन्तु एहसान फरामोश लोग सब कुछ भूल जाते हैं। जरूरत के समय सहायता के महत्व को बाद में वे नकार देते हैं। इसका कारण है लोगों में नैतिकता का पतन, जो लगातार हो रहा है। किसी की मदद कर उस पर एहसान नहीं जताना चाहिए, यह एक बात है परन्तु दूसरी ओर मदद लेने वाले को भी एहसान फरामोशी नहीं करनी चाहिए, यह भी तो नैतिकता का ही सिद्धांत है।
दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जो अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा दूसरों के लिए जीते रहे, दुनिया की मदद करते रहे, अपनी ताकत नहीं तो भाग दौड़ कर दूसरों से जरूरतमंद की मदद करवाते रहे, खुद के लिए कुछ नहीं किया। दूसरों का वर्तमान खुशहाल हो जाए इसके लिए खुद का भविष्य दांव पर लगा दिया। जब ऐसे लोगों का वास्ता एहसान फरामोश लोगों से पड़ता है तो एक बारगी ये भले लोग अंदर से टूट जाते हैं, इनका दिल टूट जाता है। फिर भी, येे अपनी आदत तो नहीं बदल सकते। भले लोग जानते हैं कि बेवकूफों को समझाने की बजाय खुद को समझाकर ही संतोष कर लेना बुद्धिमानी है। बहरों को भजन सुनाएंगे तो उन्हें कहां समझ आएंगे?
देश के जाने माने कवि अल्हड़ बीकानेरी की इन पंक्तियों में देखिए कितना यथार्थ भरा है, नेकी करने वाले दिल छोटा ना करें-
एहसान किए जिस पर हमने
वो श"स हमें पहचाने क्यों?
खामोश अभी तक थे "अल्हड़'
बहरों से लगे बतियाने क्यों?

Wednesday 28 October 2009

 

मतलब निकल गया तो....


किसी सिनेमा के गीत की ये पंक्तियां देखें-
"मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं,
यूं जा रहे हैं, जैसे हमें जानते नहीं।'
यह तो अब याद नहीं है कि यह किस फिल्म के गीत की पंक्ति है परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि गीतकार ने यथार्थ को इतनी सहजता से शब्दों में पिरोया है कि उनकी तारीफ के लिए स्वतः ही शब्द जुबान पर आ जाते हैं। पता नहीं आदमी की आदत में ऐसी बातें क्यों आसानी से शुमार हो जाती हैं कि आदमी जीवन में हर पल अपना स्वार्थ सर्वोपरि रखने लगता है और "अपनों' का एक दायरा बना लेता है जिनके हितों को वह अपना हित समझता है, बाकी लोगों की अहमियत उसके लिए बस इतनी रह जाती है कि उनसे जो भी फायदा उठाया जा सकता है, उठाए और जब वे निरर्थक हो जाएं तो उन्हें अपने मानस पटल से हटा दे। जब एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति से कोई काम निकालना होता है तो वह कुछ भी करने को तत्पर रहता है परंतु जैसे ही काम निकला, उसके हाव-भाव, बोल-चाल, उसका रवैया सब कुछ बदल जाता है। शायद ऐसे ही लोगों के लिए कहा गया है कि मतलब होने पर वे गधे को भी बाप बनाने में और मतलब पूरा हो जाने पर बाप को भी गधा कह दने में कोई शर्म नहीं करते।
जिसके साथ भी ऐसा घटता हैै, वह छला हुआ महसूस करता है परन्तु अगर कोई भी इस यथार्थ को समझले तो दिल नहीं दुखेगा कि आदमी जब अपना काम निकालने के लिए भगवान से भी छल कपट कर सकता है तो फिर किसी व्यक्ति के साथ स्वार्थी बन जाना तो कोई अचंभेे की बात नहीं। मुझे एक दृष्टांत याद आता है। एक व्यक्ति एक नारियल के पेड़ पर चढ़ता है परंतु आधी दूर पर ही इतना थक जाता है कि उसे भगवान याद आ जाते हैं। वह कहता है, हे प्रभु, मुझे इतनी शक्ति दे कि मैं सब नारियल तोड़कर बाजार में बेच आऊं, मैं 15 रुपए का प्रसाद आपके मंदिर में चढ़ाऊंगा। उसने यह सोचा ही था कि उसमें एक अदम्य उत्साह का संचार हुआ और वह ऊपर चढ़ने लगा। चढ़ता चल गया। अभी नारियलों से थोड़ी दूरी पर ही था कि उसे लगा, भगवान को 15 रुपए का प्रसाद तो ज्यादा हो जाएगा। वह मन ही मन गुनगुनाया, "प्रभु मेहनत तो मैं कर रहा हूं, बस आप तो केवल हिम्मत ही बंधा रहे हैं, इसलिए आपको 5 रुपए का प्रसाद चढ़ाना काफी होगा। वह मन ही मन सोचता रहा और ऊपर की तरफ बढ़ता रहा।
नारियल के पेड़ पर चढ़ना कोई हंसी खेल नहीं है परन्त वह तो ईश्वर का सहारा ले रहा होता है । अभी वह नारियलों के गुच्छे से एक फिट ही दूर रहा होगा कि उसे लगा अब तो बस वह सब नारियल तोड़ ही लेगा और बाजार में बेचते ही उसके पास पैसे ही पैसे हो जाएंगे।
मन में कुटिलता जागी कि अब भगवान को प्रसाद चढ़ाने न चढ़ाने से क्या फर्क पड़ता है। नारियल तो अब मिल ही जाएंगे फिर क्या है। उसने फिर मन के रास्ते से भगवान के यहां दस्तक दी। बोला, भगवान मैं कितनी तकलीफ पाकर इतनी ऊंचाई तक चढ़ा हूं, कितनी बार तो गिरते गिरते बचा, आपको 5 रुपए का प्रसाद तो ज्यादा हो जाएगा, एक रुपए का प्रसाद आपको काफी होगा। उसका इतना कहना था कि पैर फिसला और वह धड़ाम से आ गिरा जमीन पर। जमीन पर गिरते ही उसकी अक्ल ठिकाने आ गईं और कराहते हुए उसने कहा, प्रभु आपने नाहक मेरी बात को सीरियस ले लिया, मैं तो मजाक कर रहा था। कहने का मतलब है कि जब हम भगवान के साथ भी चालबाजी किए बिना नहीं रह पाते हैं तो फिर किसी आदमी को तो किस खेत की मूली समझेंगे? आज की दुनिया में लोग इतने ज्यादा स्वार्थी हो चले हैं कि उनकी करतूतें देखकर भले लोगों को तो मनुष्य जाति से ही घृणा होनेे लगे। यह कैसी प्रवृत्ति है कि जब हमें किसी से काम निकलवाना है तो हम उसके गुणगान करतेे थकते नहीं। उसमें अवगुण भी हों तो हमें वह व्यक्ति गुणों की खान दिखाई देता है। हम अपना मतलब साधते रहते हैं और जब हमें लगता है कि इस गन्ने में अब रस नहीं रहा तो उसे फैंक देते हैं। स्वार्थी व्यक्ति अपना काम निकालने के लिए हर हथकंडे अपनाता है परन्तु काम होने के बाद उसे उसी व्यक्ति की शक्ल भी नहीं सुहातीजो मददगार रहा। जिसके घर पर स्वार्थी ने घंटों बिताए हों, काम हो जाने के बाद उसके घर की गली भी उसे काटने दौड़ती है। जब मतलब होता है तो मतलबी व्यक्ति फोन कर करके अगले व्यक्ति के प्रति इतनी आत्मीयता दर्शाता है मानो उससे ज्यादा घनिष्ठ व्यक्ति और कोई नहीं। अपना काम हो जाने के बाद वह उसे भूल जाता है तो कोई बात नहीं। भूले भटके अगर मदद करने वाला व्यक्ति, जिसकी मदद करता रहा उस स्वार्थी व्यक्ति को कभी याद कर ले तो वह स्वार्थी उसके फोन नंबर देखकर अपना मोबाइल स्विच ऑफ कर देगा क्योंकि उससे अब क्या लेना देना है। ऐसे मतलबी आदमी भले ही अपने आपको ज्यादा चतुर समझते हों परंतु काठ की हांडी बार-बार चूल्हे नहीं चढ़ती।मदद करने वाले भी कभी तो असलियत पहचान ही जाते हैं। कई बार आदमी इतना ज्यादा स्वार्थी हो जाता है कि वह अपने सच्चे सहयोगियों को दरकिनार कर तात्कालिक सुख और लाभ के लालच में ऐसे लोगों का गुणगान शुरू कर देता है जहां से फिर कोई लाभ की संभावना होती है। ऐसे अति चतुर लोगों को सीख देने का भी कोई औचित्य नहीं होता। उन्हें परिस्थितियों के थपेड़े ही ठीक राह पर लाते हैं और भगवान ही उन्हें सही पाठ पढ़ाते हैं। जब तक परिस्थितियां उन्हें सबक नहीं सिखातीं तब तक वे अपनी सुविधा के अनुसार मित्र बदलते रहते हैं, मार्गदर्शक बदलते रहते हैं, अपना चोला बदलते रहते हैं, व्यवहार बदलते रहते हैं।
मतलबी लोग कितने होंशियार होते हैं, इसका अंदाजा आपको शायर अतीक इलाहाबादी की एक गजल के इन शेरों पर गौर फरमाने से हो जाएगा-
उसे तो आता है, मतलब निकालने का हुनर
वो गुफ्तगू में बहुत, जी-जनाब रखता है।
वो खुलने देता नहीं, दिल का हाल चेहरे से,
न पढ़ सके कोई, ऐसी किताब रखता है।

Friday 23 October 2009

 

ऐसी भी क्या आशा?


व्यक्ति को आशावादी तो होना ही चाहिए क्योंकि निराशाओं में डूबा व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकता। उसकी तो हर गतिविधि थम जाती है, जीवन भी ठहर सा जाता है क्योंकि हर पल, हर क्षण, हर क्रिया में उसे निराशा दिखाई देती है। निराशाओं से घिरा ऐसा मानव पुतला न स्वयं सुख से रह सकता है और न उस शख्स को सुख से रहने देता है जिसके साथ रोज उसका उठना-बैठना होता है। परन्तु इसका मतलब यह भी नहीं कि सब कुछ आशाओं के सहारे ही छोड़ दिया जाए। बड़े बुजुर्गों ने कहा है कि हर चीज की एक सीमा होनी चाहिए, चाहे वह कुछ भी क्यों न हो। हम केवल आशा लगाए बैठे रहें और लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यक प्रयास भी न करें तो ऐसी आशा कभी पूर्ण नहीं होती। बहुत सी बार तो लाख कोशिशों के बाद भी कुछ हाथ नहीं लगता। इसलिए यह गारंटी भी नहीं दी जा सकती कि श्रम करने से तो वह सब मिल ही जाएगा, जिसकी आस लगाए बैठे होते हैं। निर्भर करता है कि हमने कैसी आशाएं पाल रखी हैं। हम आशावादी हों परन्तु ऐसी आशा भी काम की नहीं जिसका कोई ओर-छोर नहीं दिखाई दे और हम केवल स्वप्नों का महल खड़ा करते जाएं।
मेरे एक मित्र ने एक बहुत अच्छा दृष्टांत सुनाया। दो गधे थे। दोनों आपस में अच्छे मित्र थे। साथ-साथ एक ही गांव में रहते थे। दोनों को अलग-अलग काम मिल गया। एक को किसी धोबी ने काम पर रख लिया। वह गधा रोज अपनी पीठ पर कपड़े ढोकर धोबीघाट ले जाता और शाम को धुलने के बाद वापस ढोकर घर ले आता। बीच के समय में धोबी घाट के आसपास घास चरता रहता। मजे में जिंदगी कट रही थी। दूसरा गधा एक नट (करतब दिखाने वाला) के साथ चला गया। नट जहां जहां करतब दिखाने जाता, उस गधे को साथ लेकर जाता क्योंकि सामान उसी पर लाद कर जाना पड़ता। वह गधा शरीर से थोड़ा कमजोर होता जा रहा था। दोनों गधे काफी दिनों बाद एक बार फिर आपस में मिले तो धोबी का गधा अपने मित्र गधे को देखकर बोला, अरे तुम इतने पतले कैसे हो गए हो, क्या खाने-पीने को ठीक से नहीं मिलता या कोई चिंता सता रही है? मुझे देखो, मैं तो पहले से भी ज्यादा मोटा हो गया हूं।
जो गधा नट के पास काम करता था उसको यह कथन अच्छा नहीं लगा। उसने नाराजगी भरे स्वर में उसे चिढ़ाते हुए कहा, तुम तो केवल खा-खा कर मोटे ही हो रहे हो परन्तु तुम्हारे काम में भविष्य क्या है, तुम्हारा फ्यूचर तो कुछ नहीं है। तुम्हें मिलने वाला क्या है, जबकि एक दिन मेरी तो लॉटरी लगने वाली है। मैं ज्यादा सुखी हूं, भले ही दिखने में पतला दिखता हूं।
धोेबी वाले गधे को थोड़ी ईर्ष्या हुई। उसने आश्चर्य प्रकट करते हुए बात का खुलासा करना चाहा। वह जानना चाहता था कि उस गधे को क्या मिलने वाला है जो लॉटरी निकलनेे की बात कर रहा है। उसने पूछ ही लिया तो नट वाले गधे ने कहा, मेरा मालिक नट रोज जगह-जगह खेल दिखाता है, जहां रस्सी पर उसकी लड़की संतुलन बनाकर चलती है और वह ढोल बजाता है। वह दर्शकों के सामने रोज कहता है अपनी लड़की को, कि देख छोकरी रस्सी पर ठीक से चलना, यदि गिर गई तो इस गधे से तुम्हारी शादी कर दूंगा। मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब वह रस्सी से गिरेगी। कभी न कभी तो छोकरी का बैलेन्स बिगड़ेगा ही, और वह गिरेगी ही। गिरेगी तो मुझसे उसकी शादी हो जाएगी। यह किसी लॉटरी से कम थोड़े ही है।
उस गधे का धैर्य तो देखिए। वह लड़की खेल दिखाते-दिखाते सात से सतरह वर्ष की हो गई है परन्तु गधे को अभी भी पूरी आशा है कि वह गिरेगी। ऐसी आशा क्या काम की? बिना सिर पैर की आशाएं ऐसी ही होती हैं। वह तो गधा था, आजकल तो आदमी भी ऐसे मिल जाएंगे जो असंभव सी आशाएं पाले रहते हैं। उन्हें मिलने वाला कुछ नहीं है। ऐसे लोगों को निराशा के अलावा कुछ हाथ लगने वाला नहीं। कोई अपने प्रेम को पाने की आशा में है तो कोई पद का आकांक्षी किसी संस्था का अध्यक्ष बनने की आशा किए बैठा है। कोई किसी राष्ट्रीय संगठन के ऊंचे पद की आशा में है, कोई राजनीति में किसी प्रमुख पद के सपने संजोए है। कोई बिना सेवा कार्य किए सबसे बड़े समाज सेवी बनने का गौरव पाने की आशा पाले हुए है तो कोई कुछ और आस लगाए बैठा है।
दरअसल हम आशा और आकांक्षा में भेद नहीं करते हैं। जबकि दोनों में काफी अंतर है। आपने कोई लक्ष्य तय किया, उसे पाने के लिए मन में एक विश्वास निर्मित करने की कोशिश की, वह आशा है। जबकि आपकी इच्छाएं, अभिलाषाएं आदि आकांक्षा की श्रेणी में आती हैं। आकांक्षा के पर लगे होते हैं, वह कल्पना की उड़ान पर उड़ सकती है। जो असंभव हो उसको भी पाने की सोच सकती है जबकि आशा का आशय अलग होता है। प्यार, पद, पैसा और प्रतिष्ठा यह सब कुछ, या इनमें से कुछ भी पाने की अभिलाषा हो, लोग बोलचाल की भाषा में इसे आस लगाए बैठना कह देते हैं। जबकि यह इच्छा है, आकांक्षा है। आदमी यदि कुछ पाने के लिए अथक प्रयास करता है और आशाएं भी ऐसी पालता है जो व्यावहारिक हों, श्रम करके जिन्हें पूरा किया जा सकता है तथा कुछ हद तक भाग्य या आशा के भरोसे रहता है तो उसकी विचारधारा को लोग लाजमी कहेंगे। परन्तु कोई असंभव सी आशा-आकांक्षा पाले रखे और खुद में उसको पूरा करने का माद्दा न हो तो उस व्यक्ति की हालत उस नट के गधे जैसी ही होती है। कोई व्यक्ति आसमान में कील ठोकने की आकांक्षा पाले रखे, और भगवान से आस लगाए बैठा रहे तो ऐसे व्यक्ति की आशा भगवान कभी पूरी भी करेगा, कहा नहीं जा सकता। कहते हैं, आकांक्षा भी ऐसी पालनी चाहिए जो देर-सबरे पूरी होनी की कम से कम धुंधली सी संभावना तो हो।
आशा के बारे में रचनाकारों का अलग अलग नजरिया हो सकता है परन्तु शब्दों में अपने विचारों और अनुभवों को रचनाकर कितनी संजीदगी से व्यक्त करता है, यह देखा जा सकता है सत्यपाल नांगिया की एक गजल के इन चंद शेरों मेंे-
सपनों का इक रंग महल है, आशाओं की सीढ़ी,
वहां प्रेम की सेज बिछी है, जी चाहो तो सो लो।
प्रेम न हो तो चैन नहीं है, हो तो कष्ट बहुत हैं,
इधर कुआं है, उधर है खाई, ये लो चाहे वो लो।
चांद से चेहरों पे मत जाओ, इनके दिल पत्थर हैं
चांद से केवल पत्थर लेकर, लौटा यहां अपोलो।
इस दनिया में सुख, सुविधा, सुन्दरता सब नश्वर है,
हुस्न के अंधो, काल का हाथी, अच्छी तरह टटोलो।

Monday 19 October 2009

 

बनावटी चेहरे


यहां हर कोई बनावटी चेहरे लिए घूम रहा है। सबके चेहरों पर मुखौटे हैं। व्यक्ति बाहर से दिखता है, वैसा अंदर है नहीं। जैसा वह अंदर है, बाहर वैसा दिखना नहीं चाहता। चेहरों की मानो मंडी लगी हुई है। चेहरों के इस बाजार में आदमी खोजना मुश्किल है। आजकल बस आकृतियां मिलती हैं, आदमी नहीं मिलते। जो मिलते हैं उन्होंने मुखौटे लगा रखे हैं, इसलिए प्रामाणिकता के साथ कहा नहीं जा सकता कि वे आदमी ही हैं। मुखौटे के पीछे जो चेहरा छिपा है उसे पहचानना मुश्किल है। अब तक ऐसा कोई यंत्र नहीं बना है जिससे असली चेहरा पहचाना जा सके। बनावटी चेहरों का सर्वत्र साम्राज्य है। इसलिए इस भीड़ में असली चेहरे ढूंढना मुश्किल है। ढूंढें भी तो कैसे? ढूंढने वाले भी अधिकांश ऐसे हैं जिन्होंने खुद ने मुखौटे लगा रखे हैं। हम सबको आदत हो गई है झूठे चेहरे लगाकर जीने की। बनावटी चेहरे लिए जी रहे हैं, घूम रहे हैं और असली चेहरों को ढूंढने की कोशिश भी करते रहते हैं।
कोई सोचता है कि मंदिर, गुरुद्वारे या मस्जिद में जाने वाले तो असली चेहरे के साथ जाते होंगे। सभा-सत्संग में जाते समय तो मुखौटा घर पर उतार कर जाते होंगे क्योंकि कहते हैं भगवान के पास झूठे चेहरों के साथ नहीं जा सकते। हम धार्मिक स्थलों या सत्संग-प्रवचन में जाते हैं तो समझ लेते हैं कि हम ईश्वर के पास पहुंच गए हैं। यह नहीं समझ पाते कि जो मुखौटा हमने लगा रखा है वह जब तक उतारेंगे नहीं तब तक हम कहीं नहीं पहुंचेंगे, भगवान की तो बात बहुत दूर की है। मंदिर, प्रवचन, भजन संध्या में उपस्थित होकर कोई भी व्यक्ति दूसरों के मन में इंसान होने का भ्रम तो पैदा कर सकता है परन्तु इंसान तभी हो सकता है जब वह मुखौटा उतार कर फेंक दे। अंदर और बाहर के भेद को मिटा दे।
एक व्यक्ति बाहर से बड़ा सौम्य दिखाई देता है, चेहरे पर मुस्कान लिए, आदर भाव व्यक्त करते हुए आपसे विनम्रता से पेश आता है परन्तु उसके मन में आपके प्रति क्या भाव हैं, वह पहचानने के लिए आपके पास कोई बैरोमीटर नहीं है, ऐसे में आप उसे एक सभ्य, अच्छा और भला इंसान ही कहेंगे। एक व्यक्ति कभी राम मंदिर जाकर चंदन की टिकिया लगाता है, कभी किसी भजन संध्या में जाकर झूम झूमकर नाचता है, कभी किसी प्रवचन में घंटे भर बैठकर प्रवचन सुनता है, किसी से दो मीठे बोल बोलता है तो यों लगता है मानो इससे बढ़िया आदमी क्या होता होगा परन्तु असल जिंदगी में, अपने ही घर-परिवार में उसका रूप दूसरा होता है। बेअदबी उसके स्वभाव में है, अहंकार और अक्खड़पन में वह आकंठ डूबा है, बड़े-बुजुर्गों का आदर करना उसने सीखा नहीं, हर दम गुरूर में तमतमाया रहता है। यह उसका असली चेहरा है परन्तु इससे दुनिया वाकिफ नहीं होती। बाहर जब वह निकलता है तो मुखौटा लगाकर निकलता है, नकली चेहरा लगाकर निकलता है। उसे पहचान पाना नामुमकिन है। यह स्वभाव की बात हुई। यह स्वभाव का मुखौटा है।
इसी प्रकार उदारता, दानवीरता का मुखौटा लगाए अनेक लोग घूमते हैं। कोई व्यक्ति विद्वान होने का नकली चेहरा लगाए है। कोई समाजसेवी होने का मुखौटा पहने है। कोई धर्मात्मा होने का चेहरा लगाए हुए है। हर कोई असलियत छुपाने में लगा है। पूरी सावधानी बरत रहा है कि किसी को असलियत पता नहीं लग जाए। जिसे बाहरी तौर पर हम धर्मात्मा समझे बैठे होते हैं, कभी उसकी पोल खुलती है तो पता लगता है कि वैसी दुष्टात्मा तो ढूंढे नहीं मिलेगी। कोई समाजसेवी बना फिर रहा है, असल में उसने खुद की सेवा करने का ढंग ढूंढ लिया है, समाजसेवा तो उसके लिए ढोंग है। कोई बाल कल्याण की , कोई महिला कल्याण की संस्था चला रहा है, बाद में कोई पुलिस केस बनता है तो पता चलता है कि वह कैसे कैसे कल्याण कर रहा था। कोई अनाथ आश्रम का पैसा खा रहा है, कोई वृद्धाश्रम के नाम पर अपना घर भर रहा है, कोई ऐय्याशियां ही कर रहा है। परन्तु सब लगे हैं, अपने अपने ढंग से। सब ने मुखौटे पहन रखे हैं। पहचान छिपी है। बाहर नकली चेहरा है, अंदर का चेहरा बाहर दिखाई नहीं देता।
ऐसा नहीं है कि सब के सब लोग नकली हैं कुछेक भले लोग असली चेहरे में सामने आते हैं परन्तु अधिकांश लोग नकली चेहरा लगाकर घूम रहे हैं, तो बात उन्हीं की की जाती है। कोई एक व्यक्ति नकली चेहरा लगाकर घूम रहा है तो वह समझता है कि जिस व्यक्ति से वह मिल रहा है, वह तो असली रूप में ही होगा । यह एक भ्रम मात्र है। दरअसल वह भी नकली चेहरा लगाए घूम रहा होता है। जो दिख रहा है वह उसका मुखौटा है। सब एक दूसरे को धोखा दे रहे हैं। हम अगर किसी को धोखा दे रहे हैं तो हमें भी कोई धोखा दे रहा है।
हर व्यक्ति जानता है कि वह अपनी असलियत छुपाकर दूसरे को धोखा दे रहा है। व्यक्ति को लगता है कि जैसा व्यवहार वह बाहर कर रहा है, लोगों के सामने जैसा पेश आ रहा है, दुनिया उसे ही हकीकत समझेगी परन्तु मनुष्य यह भूल जाता है कि असलियत बहुत ज्यादा दिन छिपती नहीं। ढोंग उजागर होता ही है। अगर हम किसी व्यक्ति से नकली व्यवहार करते हैं, यह दर्शाते हैं कि हम उसे आदर-मान दे रहे हैं परन्तु असल में हमारे मन में उसके प्रति कोई आदर नहीं है, दुनिया को दिखाने के लिए हम ढकोसला कर रहे हैं तो एक न एक दिन सच्चाई सामने आएगी। आती ही है। जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन क्या होगा? कुछ नहीं होगा क्योंकि हम अगर असली होते तो ऐसा करते ही नहीं, जब नकली चेहरा लगाए सब किए जा रहे हैं तो किसी भी हालात का डर भी कहां है? बेशर्मी ओढ रखी हो तो डर भी कैसा? दूसरों के साथ व्यवहार की तो छोड़िए, लोग अपनों को भी नहीं बख्सते। अपनों के साथ भी मुखौटा लगाकर पेश आते हैं। असल में ऐसे लोग दूसरों को नहीं, खुद को धोखा दे रहे होते हैं।
यह सच है कि किसी भी व्यक्ति को लाख समझाइए, वह नहीं समझता। जब तक व्यक्ति के खुद के साथ नहीं बीतती, जब तक वही सब कुछ खुद के साथ नहीं होता, जो दूसरों के साथ वह करता है तब तक उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। हम जिंदगी भर दूसरों पर पत्थर फेंकते रहते हैं, दुर्व्यवहार करते रहते हैं, गालियां देते रहते हैं, बेवकूफ बनाते रहते हैं, दिल दुखाते रहते हैं, धोखा देते रहते हैं परन्तु यही सब जब हमारे खुद के साथ होता है तब आंखें खुलती हैं। मुखौटा ओढे हुए, नकली चेहरे लगाए हुए लोगों के साथ ऐसा ही होता है। हमारे एक मित्र कवि-शायर हैं, मुकुन्द कौशल। उनकी गजल का यह शेर देखिए-
मैंने जिस पर पत्थर फेंके,
सारी रात अंधेरे में।
दिन निकला तो मैंने देखा,
मेरा अपना घर निकला।

Friday 16 October 2009

 

नकारात्मक मन


नकारात्मक मन। यानी, नेगेटिव माइन्ड। हम नकारात्मक मन लिए घूमते रहते हैं। यह नहीं समझ पाते कि यह नेगेटिव माइन्ड हमें बहुत सी परेशानियों में डालने वाला है। जो हमारा हितैषी होता है, उसे हम दुश्मन समझे बैठे होते हैं क्योंकि हमारा माइंड नेगेटिव सोचता है, उसे हितैषी नहीं मानता। हमें मित्र तब दिखाई पड़ता है जब वह हमसे दूर जा चुका होता है। हमें सुख का पता तभी लगता है जब वह हाथ से निकल चुका होता है। हमें समय का महत्त्व तब पता लगता है, जब हमारे पास समय बचता नहीं। हमें प्रेम का भी तब पता चलता है जब प्रेम खत्म होने लगता है। प्रेम कड़वाहट में बदल जाता है तब महसूस होता है कि प्रेम के मायने क्या होते हैं। जब कोई मर जाता है तब पता चलता है कि उसकी अहमियत क्या थी। जब तक जिंदा है तब तक हम उसके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं। पिता जिंदा है तो बेटे को भान भी नहीं रहता कि पिता का महत्त्व क्या है। जब बाप मर जाता है तो छाती पीट पीट कर रोता है। जब मां-बाप जिन्दा रहते हैं तब तक लोगों को मालूम नहीं होता कि उनके होने का मतलब क्या है। हमारा नेगेटिव माइन्ड है। नहीं होने पर हमें अहमियत का अहसास होता है। बाप मर गया तो उसके शव पर सिर पटक पटक कर रोते लोगों को देखा है परन्तु जब वह जिंदा है तब उसका आदर-सम्मान करना भी नहीं आता। पानी का असली टेस्ट तभी पता चलता है जब जोरों की प्यास लगी होती है। सुनसान रेगिस्तान में जा रहे हैं। आसमान में सूरज तप रहा है। मंजिल कोसों दूर है। प्यास लगी है तो मालूम पड़ता है कि पानी की दो बूंदें भी जीवन के लिए कितनी महत्वपूर्ण हैं। पानी सहजता से मिलता है तो हमें उसका मूल्य पता नहीं होता। बिखेरते रहते हैं, बिखरने देते हैं परन्तु जब एक घूंट पानी की जरूरत हो तब एक बूंद पानी की अहमियत का भी आभास होता है। यही बात प्यार पर, स्नेह पर लागू होती है। माता-पिता, रिश्तेदार, मित्र, अपनों के प्यार का भी तब पता चलता है जब हम अकेले होते हैं। जब चारों तरफ से प्यार बरसता दिखाई देता है तब अच्छे लोगों के प्यार की अनुभूति नहीं हो पाती क्योंकि हमारा मन नकारात्मक है। जो कुछ हमारे पास नहीं होता वह हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। जो उपलब्ध है वह बेकार है, गैर महत्वपूर्ण है।
जो कुछ हमारे पास है उसको हम भूल जाते हैं और जो नहीं है उसको पाने में जुट जाते हैं। मनुष्य सहज ही स्वार्थी बन जाता है। कई बार आदमी इतना स्वार्थी हो जाता है कि वह सब कुछ पाना चाहता है परन्तु "सब कुछ' पाने के प्रयास में "बहुत कुछ' खो भी देता है जो कि सब कुछ पाने से कम मूल्यवान नहीं होता। पोजिटिव माइन्ड बहुत कम लोगों के पास होता है। ज्यादातर लोग नेगेटिव माइन्ड लिए ही घूमते रहते हैं। इस चक्कर में होता यह है कि जो कुछ है वह दिखाई नहीं देता। जब कुछ नहीं रहता है उस समय दिखाई देता है कि वह सब कुछ हमारे पास था, जो अब नहीं है।
जब हमारे पास हमारे अपने होते हैं, हम उनके होने का एहसास नहीं कर पाते। उनसे छल कपट करते हैं। उनको धोखा देते हैं। उनका मान-सम्मान नहीं करते। उनसे अच्छा व्यवहार नहीं करते। दुनिया के सामने प्रदर्शन तो करते हैं कि हम अच्छे हैं, परन्तु असल में हम छल-कपट से भरे होते हैं। घर में माता-पिता, बड़े-बुजुर्ग का आदर तभी करते हैं जब दुनिया देख रही होती है। देखने वालों की नजर घूमी नहीं कि अपना भी नजरिया बदलते देर नहीं लगती। मां-बाप के मरने पर फूट फूटकर रोने वालों की असलियत उनके पड़ौसियों से पूछें तो पता चलेगी कि बेचारे माता-पिता जब जिंदा थे तो उन्हें ठीक से रोटी भी नहीं दी जाती थी और मरने पर हाय तौबा मची है।
ऐसा नहीं है कि अपनों के मरने पर किसी को दुख नहीं होता परन्तु सचाई यह है कि असली महत्व उनका तभी पता चल पाता है जब उनका अभाव खलता है। व्यक्ति जब खुद तन्हाई में होता है, अकेलापन महसूस करता है तब "अपनों' को याद करता है, उनके स्नेह-प्यार को याद करता है परन्तु वही "अपने' जब स्नेह लुटा रहे होते हैं तब उनके स्नेह-प्यार का कोई मोल नहीं होता। बल्कि बहुत से लोग तो अपनों को कदम कदम पर दुखी करते हैं। उनके दिल को चोट पहुंचाते हैं। उनके अरमानों को आघात पहुंचाते हैं। उन्हें जलील करते हैं। अपने ही खासमखास को, अपने ही माता-पिता को, जिन्होंने अंगुली पकड़कर सड़क पार करना सिखाया उनको, अपमानित करते हैं। जो मां-बाप जिंदगी बनाते हैं उन्हीं को जिंदगी में अपनी खुद की नाकामियों के लिए उनके बच्चे कोसते नजर आते हैं। अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं होतीं तो दोष उन पर मढ़ते हैं जिन्होंने जीवन का निर्माण किया, किसी काबिल बनाया।
एक पेड़ से एक लाख माचिस की तीलियां बन सकती हैं, यह निर्माण का सूचक है परन्तु एक तीली एक लाख पेड़ों को जलाकर राख कर सकती है। एक नकारात्मक विचार कितने ही सकारात्मक विचारों को नष्ट कर सकता है। फिर हम तो पूरा नेगेटिव माइंड ही लिए चलते हैं। स्पष्ट है कि नकारात्मक सोच के साथ सृजन संभव नहीं है। जो नेगेटिव माइंड लेकर चलता है वह सब कुछ नेगेटिव ही सोचता है। इसी सोच के चलते उसकी नजर अपने-पराए का भेद नहीं कर पाती। अच्छाई-बुराई में अंतर उसे समझ में नहीं आता। सोच नेगेटिव होने से केवल अपना स्वार्थ तो नजर आता है परन्तु अपनों का अपनत्व सामने होते हुए भी दिखता नहीं। रिश्ते-नातों की अहमियत उसके लिए गौण हो जाती है। किसी ने उसके लिए कुछ भी अच्छा किया तो उसे पल भर में भुला दिया जाता है। उसका पूरा माइंड ही नेगेटिव है तो सकारात्मक दृष्टिकोण आएगा कहां से? ऐसा माइंड अपनों से दूरी पैदा करता है, अपनों के प्रति घृणा पैदा करता है, मन में अपनों का आदर घटाता है, अपनों के प्रति अपमानजनक भाव पैदा करता है, अपनों को धोखा देने का कुविचार मन में जगाता है और व्यक्ति इससे अनभिज्ञ रहता है। समय का चक्र चलता रहता है, दुनिया आगे बढ़ती रहती है, घड़ी की सूइयां हमेशा की तरह उसी गति से चलती रहती हैं और हम अपने व्यवहार से अपनों को ही कष्ट पहुंचाते रहते हैं, दुखी करते रहते हैं, सबक सिखाते रहते हैं, दुनियादारी का पाठ पढ़ाते रहते हैं और अपने अहम का पोषण करते रहते हैं। हमें लगता है कि हम आज ऐसा करके बहुत कुछ पा रहे हैं परन्तु असल में बहुत कुछ खो रहे होते हैं, जिसका अहसास उस समय होता है जब हम उसे खो चुके होते हैं, जो हमारे पास होना चाहिए।
ग्वालियर के एक शायर अमित चितवन की एक गजल के शेर देखिए-
बेशक तेरा अपना साया है लेकिन,
जो अपना है, वो ही धोखा करता है।
उसने हमको सिखलाई दुनियादारी,
वो धोखा देता है, अच्छा करता है।

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